Monday 1 July 2013



सूरज धीरे धीरे ढलने लगा है
एक अच्छे सफ़र का अंत अब दिखने लगा है
वक़्त में पिच्छे जाने का जी कर रहा है
सफ़र को दोबारा शुरुवात से तय करने को दिल जो मचल रहा है

जब घर से चला था तो अकेला था
अपने साथ सिर्फ उमीदो के सहारे निकल पढ़ा था
पर लम्हा लम्हा उम्मीद से बढ़कर बीता
और मेरी यादों की तिजोरी में जुढ़ता चला

तिजोरी में कैद एक एक लम्हे की याद अमूल्य है
हर याद अपने आप में एक जैसे न देखा रत्न है 
अंगिनत हीरे की चमक समान  हसी के लम्हे है
तो कुछ समुंदर के मोती की तरह रोने के पल भी फस्से है










सफ़र की अंतिम रेखा को देख कर अजीब सा लग रहा है
अरे अभी तो चालू किया था सफ़र ऐसा लग रहा है
फिरसे लग रहा है जैसे घर को छोरके जाना पढ़ रहा है
यहाँ बीती हर घटना को बार बार जीने का मन कर रहा है 
और जो कुछ न आजमा सके उसका तजुर्बा पाने का दिल कर रहा है

पर इस तिजोरी पे अब ताला लगाने का वक़्त आ गया है
इस सफ़र को ख़तम करने का शरण आ गया है
ज़िन्दगी की किताब में एक और पन्ना भर गया है
और एक नए पन्ने को भरने का समय आ गया है
आशा है तिजोरी में कैद रत्न हमेशा चमकते रहेंगे 
और आने वाले ज़िन्दगी के अनेक सफर्रो में
रोशिनी फेलाते रहेंगे
रोशिनी फेलाते रहेंगे


- अवनीश गुप्ता 



Saturday 9 February 2013



   

आज मेरा फिरसे मन उब गया
इस दुनिया की मोह माया से फिर मेरा मन उठ गया
और एक लम्बे इन्तेकाल के बाद वापिस मेरा ऐसा जी कर गया
जो अपना कलम उठाके एक नयी दुनिया बनाने का मन बन गया

एक नयी दुनिया की विचित्र चित्र धुंधली सी दिखने लगी
और अचानक मेरी सोच एक नए रस्ते पे चलने लगी
ऐसा लगा ख्यालो की बारिश मेरे मन  पर गिरने लगी
क्यूँकी थी जो तस्वीर धुंधली वो भीनी भीनी सी अब दिखने लगी

अब मैं उस तस्वीर को थोडा थोडा पहचानने लगा था
बेशक आँखों से देख पा रहा था पर समझ नहीं आ रहा था
और खुद ही से बार बार ये सवाल उठा रहा था
की अवनीश तू कैसी तस्वीर बना रहा है जो खुद ही की सोच में उलझे जा रहा है

जैसे जैसे समय का चक्र चलता गया
वैसे ही तस्वीर का एक के बाद एक नया रंग निखरता गया
और मुझे इस तस्वीर को देखने का नया पहलूँ मिलता गया
एक बंद ताले की मुझे चाब्बी जैसे मिल ही गयी
और इस तस्वीर की गुथी सुलझाने की मुझे एक तरकीब सूझ गयी
क्यूंकि आँखों के साथ मेरे मन को भी ये तस्वीर दिख ही गयी

तस्वीर बहुत खुबसूरत थी
कभी न देखे रंगों के मेल से बनी थी
पर मैंने सोचा, क्यूँ मेरी सोच से परे थी
फिर आवाज़ गूंजी की गलती तो मेरी थी
मैंने एक ऐसी तस्वीर बनाने की कोशिश करी थी
जो हकीकत से मीलो दूर , बहुत दूर खड़ी थी







क्यूँकी,
यहाँ सिर्फ हसी ही हसी थी
और आसूओ की कमी थी
यहाँ कोई दौड़ नहीं चल रही थी
जिसमे सबको आगे निकलने की पढ़ी थी
क्यूँकी,
यहाँ भूखे के नाम भी अन्न के दो दाने थे
और बेघरो के भी ठिकाने थे
चारो तरफ सिर्फ ख़ुशी के नजराने थे
क्यूँकी,
यहाँ सिर्फ अमीर नहीं
गरीबो का भी बोल बाला था
सिर्फ पुरुष नहीं
नारी को भी बराबर का दर्जा दिया जाता था
क्यूँकी,
हर कोई नफरत जैसे लफ़्ज़ों से अनजाना था
हर मानस एक दूसरे को अपना मानता था
कोई यहाँ हथियार नहीं उठाता था
बस एक दूसरे को प्यार से गले लगाता था

अब आँखे खोली तो फिर वास्तविकता में आ गया
एकदम से सनाटे को शोर ने भगा दिया
अपने खयालों को किसी कोणे में मैंने छुपा दिया
इच्छाओं को कही गहराई में दबा दिया
एक और तस्वीर को मैंने अपने मन के कैनवास से मिटा दिया
और ऐसे ही मैंने एक और तस्वीर को भुला दिया
और ऐसे ही मैंने एक और तस्वीर को भुला दिया

- अवनीश गुप्ता 



Tuesday 30 October 2012




धुआ धुआ सा छाया है मेरे चारो ओर 
नजाने क्यूँ धुंधली सी है आज मेरी सोच 
हवा में आज नमी कुछ अलग सी ही है 
भयंकर तूफ़ान से आने के पहले की शान्ति जैसे फेली हुई है  
अजीब सा ही मौसम छाया हुआ है मेरे मन पे  
कभी दिखे सूर्य की किरणे  
तो कभी चाँद क्या तारे भी न चमके



  





एक सांप जैसे लिपटा पढ़ा है मुझसे 
चाहे तो अगली हरकत पर ही मुझको दस् दे 
क्यूँ लग रहा है जैसे 
ज़रूर कही किसी कोने में कुछ खतरनाक सा चल रहा है 
मेरे खिलाफ कोई जैसे कुछ साज़िश रच रहा है 
खुली हवा में सांस ले रहा हूँ 
फिर भी घुटन महसूस कर रहा हूँ
और जैसे अपने एक डरवाने सपने को जी रहा हूँ




कल तक मेरे सामने ही थी मेरी मंजिल 
फिर क्यूँ आज कही वो छिप गयी है 
इस कोहरे के धुये में कही खो गयी है 
लुका छुपी का खेल बचपन से खेलता रहा हूँ
अपने रास्ते से भटक आज गया हूँ
पर अभी न ही अपनी हिम्मत और न ही ये खेल हारा हूँ
ऐ मंजिल जा चुप ले जहाँ छुप सकती है 
आजमा ले मेरा जोर  
और लगा ले अपना जितना जोर तू लगा सकती है 
बेश्ख मेरी नज़र से तू अभी छुप जाएगी 
पर मेरे हौसले से तू न बच पायेगी 
मेरे हौसले के आगे तू हार ही जाएगी 


- अवनीश गुप्ता 


Thursday 11 October 2012


      
     

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ 
और  एक  अलग  ही  दुनिया  में  खो  जाता  हूँ
कभी  खुली  आँखों  से  सपने  बुनता  हूँ 
तो  कभी  उन्ही  सपनो  की  गहराइयों  में  रात  को  डूब  जाता  हूँ
अपने  सपनो  को  देखके  उन्ही  सपनो  में  जीने  का  दिल  करता  है 
पर  फिर  उन्ही  हसीन  हसरतो  को  हकीक़त  मनाने   का  मेरा  जी  करता  है 

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
और  खुद  ही  से   ये  सवाल  उठाता  हूँ 
की  क्यूँ  इंसान  इतना  नादान  है  
जो  खुद  ही  से  अभी  तक  अनजान  है 
की  क्यूँ  इंसान  है  इतना  अजीब 
हमेशा  इसकी  हसरते  होती  है  कुछ  पाने  की  हसीन 

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
और  वक़्त  की  ताक्कत  को  महसूस  कर  भोच्का  रह  जाता  हूँ
ये  तो   वक़्त  वक़्त  की  बात  है 
की  कल  जो  अपने  थे  आज  पराये  हो  गये  
और  कल  के   पराये  आज  हमारे  सहारा  देने  वाले  कन्धे  बन  गये  
ये  तो  वक़्त  वक़्त  की  बात  है 
की  सुख  में  मिल  जायेंगे  बहुत  ख़ुशी  बाटने  के  लिए 
पर  कौन  है  अपना  कौन  पराया  दुःख  में  इसका  एहसास  होता  है 

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
और  बीतें  लम्हों  की  यादों  में  घूम  हो  जाता  हूँ
कभी  कभी  उन्  सबकी  याद    जाती  है 
कभी  कभी  उन्  सब  की  कमी  मुझे  खल  जाती  है 
कैसा  होता  मेरा  आने  वाला  कल 
अगर  मेरा  आज  भी  होता  मेरा  बिता  हुआ  कल 

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
और  हज़ारों  सवालों  से  युही  घिर  जाता  हूँ
की  कैसा  होता  अगर  ऐसा  होता 
अगर  ऐसा  होता  तो  कैसा  होता 

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
की  क्यूँ  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
की  क्यूँ  मैं  बार  बार  कही  खो  जाता  हूँ
की  क्यूँ  मैं  इतने  सवाल  उठाता  हूँ
की  क्यूँ  मैं  याद  करता  और  फिर  जुदा  हो  जाता  हूँ
इन्ही  सब  सवालों  के  जवाब  ढूंडने  बार  बार  मैं  निकल  जाता  हूँ
और  अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
और  अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ 


- अवनीश गुप्ता 

Friday 7 September 2012

                     
                 'क्यूँ आज'


आज अपने आप को शब्दों के दरमियाँ बया करने का फिर मन कर गया 
नजाने क्यूँ आज फिरसे लिखने का जी कर गया 
ऐसा लग रहा है जैसे मेरे साथ बहुत कुछ है घट गया 
जो आज एक दम से फिर कलम  उठाने का मन कर गया 
नजाने क्यूँ आज फिरसे लिखने का जी कर गया 
पता नहीं क्यूँ मन में एक अलग सी चंचलता है आज 
पता नहीं क्यूँ दिल में एक अलग सी हलचल है आज 
कुछ है नहीं बताने को फिर भी आज क्यूँ कुछ बताने को जी कर गया 
नजाने क्यूँ आज फिरसे लिखने का जी कर गया 
ऐसा लगा जैसे कुछ न घट के भी घट गया 
इस अन्घठी घटना का मेरे पर ऐसा असर पढ़ गया 
जो न होके भी मेरे दिल को लग गया 
और चुपके से जाके मेरे मन में बस गया 
नजाने क्यूँ  आज  फिरसे लिखने का जी कर गया 
शायद ऐसे ही इस मन का आज मन कर गया 
शायद ऐसे ही आज दिल कर गया 
जो आज फिरसे लिखने का जी कर गया 
जो आज फिरसे लिखने का जी कर गया 

- अवनीश गुप्ता